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काला कफ़न

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कुछ ख्वाब अधूरे है,
जो सोने नहीं देते,
एक कसक की तरह चुभते है,
खोजते है जैसे मृग कस्तूरी को,
न जाने क्यों अँधेरा अच्छा लगता है,
जब ख्वाब टूटते है,
क्या वास्ता है अँधेरे का ख्वाबो से,
दिखते भी अँधेरे में है,
टूटते भी अँधेरे में ही है,
कुछ पल के लिए अरमान बनते है,
लेकिन सिर्फ कुछ पल के लिए ही,
क्या वास्ता है काले रंग से,
खुदा भी खेल सा खेलता है,
रात के बाद सूर्योदय होता है,
फिर क्यों ख्वाबो में सूर्यास्त है,
धूमिल है साया भी यहा तो,
फिर क्या भरोसा साये का,
‘सवना’टूटते देखे है तारे भी यहा प्रकाश देते हुए,
‘काले कफ़न’ की तरह है अधूरा ख्वाब,
जो जिन्दा लाश पे चढ़ जाता है,
इस से तो सफ़ेद अच्छा है,
चढ़ता कुछ पल के लिए ही है,
लेकिन इंसान ख्वाब लेने ही भूल जाता है !

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